Wednesday, 24 April 2013

काश

वो अफसाना मोहब्बत का जो लफ़्ज़ों में बयाँ होता,
न पलकें मेरी नम होतीं, न अश्कों का समाँ होता।

कोई झोंका हवा का ही मेरी जानिंब गुज़र जाता,
कि मेरा राज़-ए-दिल शायद इसी ज़रिये बयाँ होता।

खुदाया उनके दिल को ग़र तुझे पत्थर बनाना था,
मुझे बतला दिया होता, मैं ख़ुद-ब-ख़ुद फ़ना होता।

ज़बां ख़ामोश रहती है, नज़र क़ातिल, अदा क़ातिल,
वो ज़ाहिर राज़ ये करते तो मैं ना-आशना होता।

जिसे वो दोस्ती समझे, था मेरे इश्क का साया,
अगर वो हाल-ए-दिल सुनते, न उनको ये गुमां होता।

न टुकड़े कर दिये होते उन्होंने इस तरह "सौरभ",
तो ये दिल आज भी क़ातिल सनम का आईना होता।

Thursday, 4 April 2013

ख़्वाहिश


सदा पे तेरी लुटा के जाँ अपनी,
मैं ख़ुद को आज़माना चाहता हूँ।

आज हर शै है मेरी, तेरी कमी ख़लती है,
तुझे ख़यालों में ला वो मिटाना चाहता हूँ।

नाम तेरा, तेरा ख़याल, तसव्वुर तेरा,
अपनी ग़ज़ल को तुझसे मैं सजाना चाहता हूँ।

गीत हो या ग़ज़ल हो, नज़्म हो या रूबाई,
तेरे ही नाम करना हर फ़साना चाहता हूँ।

ये ज़माना भला क्या ढूँढ सकेगा तुझको,
मैं तो तुझको तुझ से ही यूँ छुपाना चाहता हूँ।

अब तो बस नज़र-ए-इनायत की तेरी ख़्वाहिश में,
तमाम उम्र मैं अपनी बिताना चाहता हूँ।

तेरे इन मखमली पाँवों को चोट दे दें ना गुल,
मैं तेरी राह में पलकें बिछाना चाहता हूँ।

यूँ तो मिलता है मुझको रोज़ तू ख़यालों में,
मैं ख़यालों को हक़ीक़त बनाना चाहता हूँ।

आज निकाला हूँ घर से ख़ुद से ये वादा करके,
तेरी हस्ती पे ख़ुद को मैं मिटाना चाहता हूँ।

गूंजा करती है मेरे दिल में एक ही ख़्वाहिश,
तेरा हूँ, तुझ में ही अब मैं समाना चाहता हूँ।

इक तेरा क़ूचा ही अब है इबादतगाह मेरी,
तेरे ही दर पे मैं सर को झुकाना चाहता हूँ।

Sunday, 3 March 2013

बचपन


ऐ काश कहीं वो फ़ुर्सत के लम्हे जो दोबारा मिल जाएँ
सर्दी की सुनहरी धूप में फिर, छत पर खेलें या सो जाएँ
सावन की भीगी शामें फिर, गलियों में नाव डुबो जाएँ
या गर्मी की रातों में चाँदनी ओढ़ के ख्वाबों में खो जाएँ

हे समय ठहर, तू किस धुन में दिन-रात दौड़ता जाता है?
वो शहर, वो गलियाँ फिर दे दे, जिनसे कि पुराना नाता है
क्यों अपने साथ तू हम सबको यूँ दिशाहीन दौडाता है?
इस अन्धी दौड़ का क्या मक़सद, दिल समझ नहीं ये पाता है

इससे वो बचपन अच्छा था जब मम्मी मुझे मनाती थी
एक जीत-हार पर हंस लेते, या आँख डबडबा आती थी
जब नन्हीं हथेली पर बेंतों की मार रुला कर जाती थी
पर पापा सर पे हाथ जो रख दें, नींद तुरत आ जाती थी

हे समय, कहाँ तू ले आया, हर बन्दा ओढ़े मुखौटा है
हर चेहरे पर हैं मुस्कानें, पर दिल अन्दर से खोटा है
मुझको वो बचपन वापस दे, अब और सहन नहीं होता है
ये दर्द है हद से गुज़र चुका, वरना "सौरभ" नहीं रोता है

Tuesday, 22 January 2013

एक पत्ता ज़िन्दगी

अभी टूटा हूँ दरख़्त-ए-चमन की शाख़ से मैं,
हवा जिस ओर भी ले जायेगी, उड़ जाऊंगा।

ग़र मिल गया किसी परिंदे को आज कहीं,
भूख बच्चों की उसके  आज मैं मिटाऊंगा।

जो मिला ग़र किसी परिंदे को सूखने के बाद,
उसके सपनों का आशियाँ कहीं सजाऊँगा।

और जब भी ख़ाक में मिलेगी ये हस्ती मेरी,
बन के इक नया दरख़्त फिर से लहलहाऊंगा।

कौन कहता है के मौत आयेगी तो मर जाऊंगा,
मैं तो सौरभ हूँ, हवाओं में बिखर जाऊँगा।