Thursday, 4 April 2013

ख़्वाहिश


सदा पे तेरी लुटा के जाँ अपनी,
मैं ख़ुद को आज़माना चाहता हूँ।

आज हर शै है मेरी, तेरी कमी ख़लती है,
तुझे ख़यालों में ला वो मिटाना चाहता हूँ।

नाम तेरा, तेरा ख़याल, तसव्वुर तेरा,
अपनी ग़ज़ल को तुझसे मैं सजाना चाहता हूँ।

गीत हो या ग़ज़ल हो, नज़्म हो या रूबाई,
तेरे ही नाम करना हर फ़साना चाहता हूँ।

ये ज़माना भला क्या ढूँढ सकेगा तुझको,
मैं तो तुझको तुझ से ही यूँ छुपाना चाहता हूँ।

अब तो बस नज़र-ए-इनायत की तेरी ख़्वाहिश में,
तमाम उम्र मैं अपनी बिताना चाहता हूँ।

तेरे इन मखमली पाँवों को चोट दे दें ना गुल,
मैं तेरी राह में पलकें बिछाना चाहता हूँ।

यूँ तो मिलता है मुझको रोज़ तू ख़यालों में,
मैं ख़यालों को हक़ीक़त बनाना चाहता हूँ।

आज निकाला हूँ घर से ख़ुद से ये वादा करके,
तेरी हस्ती पे ख़ुद को मैं मिटाना चाहता हूँ।

गूंजा करती है मेरे दिल में एक ही ख़्वाहिश,
तेरा हूँ, तुझ में ही अब मैं समाना चाहता हूँ।

इक तेरा क़ूचा ही अब है इबादतगाह मेरी,
तेरे ही दर पे मैं सर को झुकाना चाहता हूँ।

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