Wednesday, 24 April 2013

काश

वो अफसाना मोहब्बत का जो लफ़्ज़ों में बयाँ होता,
न पलकें मेरी नम होतीं, न अश्कों का समाँ होता।

कोई झोंका हवा का ही मेरी जानिंब गुज़र जाता,
कि मेरा राज़-ए-दिल शायद इसी ज़रिये बयाँ होता।

खुदाया उनके दिल को ग़र तुझे पत्थर बनाना था,
मुझे बतला दिया होता, मैं ख़ुद-ब-ख़ुद फ़ना होता।

ज़बां ख़ामोश रहती है, नज़र क़ातिल, अदा क़ातिल,
वो ज़ाहिर राज़ ये करते तो मैं ना-आशना होता।

जिसे वो दोस्ती समझे, था मेरे इश्क का साया,
अगर वो हाल-ए-दिल सुनते, न उनको ये गुमां होता।

न टुकड़े कर दिये होते उन्होंने इस तरह "सौरभ",
तो ये दिल आज भी क़ातिल सनम का आईना होता।

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