Tuesday, 22 January 2013

एक पत्ता ज़िन्दगी

अभी टूटा हूँ दरख़्त-ए-चमन की शाख़ से मैं,
हवा जिस ओर भी ले जायेगी, उड़ जाऊंगा।

ग़र मिल गया किसी परिंदे को आज कहीं,
भूख बच्चों की उसके  आज मैं मिटाऊंगा।

जो मिला ग़र किसी परिंदे को सूखने के बाद,
उसके सपनों का आशियाँ कहीं सजाऊँगा।

और जब भी ख़ाक में मिलेगी ये हस्ती मेरी,
बन के इक नया दरख़्त फिर से लहलहाऊंगा।

कौन कहता है के मौत आयेगी तो मर जाऊंगा,
मैं तो सौरभ हूँ, हवाओं में बिखर जाऊँगा।

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