Monday, 1 December 2014

तमन्ना

अपनी ग़ुस्ताख़ियों का इतना असर चाहते हैं,
बस इनके बदले तेरी एक नज़र चाहते हैं।

तेरे दामन में सजा के चाँद और तारे,
स्याह रातों में जगमगाता फ़लक चाहते हैं।

तेरी फ़ुरक़त ने दिए हैं जो ज़ख्म-ए-दिल हमको,
वो तेरा मरहम-ए-दीदार महज़ चाहते हैं।

अपनी इबादत का इतना ही सिला माँगते हैं हम,
तेरी बलाएं तमाम अपने सर पे चाहते हैं।

तेरे क़दमों तले आती हो जो ज़मीं हर रोज़,
उसी जगह पे हम अपनी क़ब्र चाहते हैं।

हुए फ़क़ीर तेरी चाहत में "सौरभ" तो क्या,
तुझे ही चाहने का रब से हुनर चाहते हैं।


फ़ुरक़त = separation

Friday, 28 November 2014

हाल-ए-दिल

हम इस दीवानगी-ए-इश्क़ को छुपाएं कैसे,
बात जो दिल में है वो लब तलक लाएं कैसे।

उनसे मिलते ही आ जाती है रुख़ पर रौनक,
हाल-ए-दिल को बिना अलफ़ाज़ जताएं कैसे।

वो जब भी रु-ब-रु होते हैं तो मिलता है सुक़ून,
ये सुकूं छोड़ के ग़र जाएं तो हम जाएं कैसे।

जब भी होते हैं तनहा, दिल उन्हें देता है सदा,
सदा-ए-दिल को भला जाँ तक पहुँचाएं कैसे।

मुद्दतें हो गयीं हैं ख़्वाब उनके देखे हुए,
नींद वो ले गए हैं, ख़्वाब भी आएं कैसे।

चोट लगती है वहाँ, दिल यहाँ तड़पता है,
"सौरभ" बन कर के मरहम दर्द मिटाएं कैसे।

Tuesday, 14 October 2014

आदमी

ज़िन्दा तो है पर जीने से लाचार आदमी,
और मौत के भी डर में गिरफ़्तार आदमी।
रातें गुज़ारता है जो आँखों ही में अक़्सर,
दिन में दिखे ख़्वाबों का वो शिकार आदमी।
मिलता है जब भी मुझसे तो कहता है राम-राम,
फिर क्यों छुरा बगल में दबाये है आदमी।
पहले तो एक दूसरे से मिलता है गले,
फिर पीठ में खंजर उतारता है आदमी।
बन्दूकें तान सरहदों पे है खड़ा हुआ,
जो दूसरी तरफ खड़ा हुआ, है वो भी आदमी।
एटम बमें, मिसाइल, गोला, बारूद बिछा के,
अपनी क़बर को खुद ही खोदता है आदमी।
एक दूसरे का क़त्ल है करने पे आमादा,
ज़द्दोज़हद-ए-ज़िन्दगी का शिकार आदमी।
ऐ मेरे खुदा तूने किस मिट्टी का बनाया,
अपनी ही जान देने को तैयार आदमी।

Monday, 16 June 2014

ये दिल बेचारा रह गया।

हम तुझे ढूंढा किये शाम-ओ-सहर हर ज़ू मगर।
ख़्वाब कल की रात का तेरा नज़ारा दे गया।।

एक तेरे ही सजदे में झुकता है अब ये सर मेरा।

जाने काशी क्या हुई, किस ओर क़ाबा रह गया।।

आईना भी अब तो आईना नहीं लगता सनम।

शक्ल तेरी, अक्स तेरा, क्या हमारा रह गया।।

चांदनी रातें भी अब तो स्याह अमावस हो गयीं।

रू-ब-रू ग़र तू न हो तो क्या नज़ारा रह गया।।

शब-ए-वस्ल पे हम तेरा करते रहे बस इंतज़ार।

"सौरभ" बस तन्हाई का हमको सहारा रह गया।।

Wednesday, 24 April 2013

काश

वो अफसाना मोहब्बत का जो लफ़्ज़ों में बयाँ होता,
न पलकें मेरी नम होतीं, न अश्कों का समाँ होता।

कोई झोंका हवा का ही मेरी जानिंब गुज़र जाता,
कि मेरा राज़-ए-दिल शायद इसी ज़रिये बयाँ होता।

खुदाया उनके दिल को ग़र तुझे पत्थर बनाना था,
मुझे बतला दिया होता, मैं ख़ुद-ब-ख़ुद फ़ना होता।

ज़बां ख़ामोश रहती है, नज़र क़ातिल, अदा क़ातिल,
वो ज़ाहिर राज़ ये करते तो मैं ना-आशना होता।

जिसे वो दोस्ती समझे, था मेरे इश्क का साया,
अगर वो हाल-ए-दिल सुनते, न उनको ये गुमां होता।

न टुकड़े कर दिये होते उन्होंने इस तरह "सौरभ",
तो ये दिल आज भी क़ातिल सनम का आईना होता।

Thursday, 4 April 2013

ख़्वाहिश


सदा पे तेरी लुटा के जाँ अपनी,
मैं ख़ुद को आज़माना चाहता हूँ।

आज हर शै है मेरी, तेरी कमी ख़लती है,
तुझे ख़यालों में ला वो मिटाना चाहता हूँ।

नाम तेरा, तेरा ख़याल, तसव्वुर तेरा,
अपनी ग़ज़ल को तुझसे मैं सजाना चाहता हूँ।

गीत हो या ग़ज़ल हो, नज़्म हो या रूबाई,
तेरे ही नाम करना हर फ़साना चाहता हूँ।

ये ज़माना भला क्या ढूँढ सकेगा तुझको,
मैं तो तुझको तुझ से ही यूँ छुपाना चाहता हूँ।

अब तो बस नज़र-ए-इनायत की तेरी ख़्वाहिश में,
तमाम उम्र मैं अपनी बिताना चाहता हूँ।

तेरे इन मखमली पाँवों को चोट दे दें ना गुल,
मैं तेरी राह में पलकें बिछाना चाहता हूँ।

यूँ तो मिलता है मुझको रोज़ तू ख़यालों में,
मैं ख़यालों को हक़ीक़त बनाना चाहता हूँ।

आज निकाला हूँ घर से ख़ुद से ये वादा करके,
तेरी हस्ती पे ख़ुद को मैं मिटाना चाहता हूँ।

गूंजा करती है मेरे दिल में एक ही ख़्वाहिश,
तेरा हूँ, तुझ में ही अब मैं समाना चाहता हूँ।

इक तेरा क़ूचा ही अब है इबादतगाह मेरी,
तेरे ही दर पे मैं सर को झुकाना चाहता हूँ।

Sunday, 3 March 2013

बचपन


ऐ काश कहीं वो फ़ुर्सत के लम्हे जो दोबारा मिल जाएँ
सर्दी की सुनहरी धूप में फिर, छत पर खेलें या सो जाएँ
सावन की भीगी शामें फिर, गलियों में नाव डुबो जाएँ
या गर्मी की रातों में चाँदनी ओढ़ के ख्वाबों में खो जाएँ

हे समय ठहर, तू किस धुन में दिन-रात दौड़ता जाता है?
वो शहर, वो गलियाँ फिर दे दे, जिनसे कि पुराना नाता है
क्यों अपने साथ तू हम सबको यूँ दिशाहीन दौडाता है?
इस अन्धी दौड़ का क्या मक़सद, दिल समझ नहीं ये पाता है

इससे वो बचपन अच्छा था जब मम्मी मुझे मनाती थी
एक जीत-हार पर हंस लेते, या आँख डबडबा आती थी
जब नन्हीं हथेली पर बेंतों की मार रुला कर जाती थी
पर पापा सर पे हाथ जो रख दें, नींद तुरत आ जाती थी

हे समय, कहाँ तू ले आया, हर बन्दा ओढ़े मुखौटा है
हर चेहरे पर हैं मुस्कानें, पर दिल अन्दर से खोटा है
मुझको वो बचपन वापस दे, अब और सहन नहीं होता है
ये दर्द है हद से गुज़र चुका, वरना "सौरभ" नहीं रोता है