Tuesday, 14 October 2014

आदमी

ज़िन्दा तो है पर जीने से लाचार आदमी,
और मौत के भी डर में गिरफ़्तार आदमी।
रातें गुज़ारता है जो आँखों ही में अक़्सर,
दिन में दिखे ख़्वाबों का वो शिकार आदमी।
मिलता है जब भी मुझसे तो कहता है राम-राम,
फिर क्यों छुरा बगल में दबाये है आदमी।
पहले तो एक दूसरे से मिलता है गले,
फिर पीठ में खंजर उतारता है आदमी।
बन्दूकें तान सरहदों पे है खड़ा हुआ,
जो दूसरी तरफ खड़ा हुआ, है वो भी आदमी।
एटम बमें, मिसाइल, गोला, बारूद बिछा के,
अपनी क़बर को खुद ही खोदता है आदमी।
एक दूसरे का क़त्ल है करने पे आमादा,
ज़द्दोज़हद-ए-ज़िन्दगी का शिकार आदमी।
ऐ मेरे खुदा तूने किस मिट्टी का बनाया,
अपनी ही जान देने को तैयार आदमी।

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