Thursday, 24 July 2008

ग़ज़ल

आज मुझ पे भले यकीं न करो, दिल में अपने मगर न शक रखना,
डर हो तन्हाइयों में खोने का ग़र, लौट आने का साथ हक रखना...

हम तो जिस हाल में हैं, जी लेंगे, अश्क भी दोगे ग़र, तो पी लेंगे,
और दुआ मांगेंगे खुदा से यही, अश्कों से दूर तुम पलक रखना…
आज मुझ पे भले यकीं न करो...

तुमको जाने की ज़िद है, जाओ, मगर, दिल से ना दूर कर सकेंगे तुम्हें,
होगा मुश्किल तुम्हें ख़यालों से, एक पल को भी मुख्तलिफ रखना...
आज मुझ पे भले यकीं न करो...

वास्ता तुमको है वफ़ा का सुनो, दिल से अपने मिटा ही देना हमें,
दिल तुम्हारा दुखे खुदा न करे, याद गुज़रे पलों को मत रखना...
आज मुझ पे भले यकीं न करो...

सुनेंगे जब भी सदा सावन की, दिल में इक टीस तो उठेगी, मगर,
वक़्त के साथ सीख ही लेंगे, जिगर को अपने पुर-ख़लिश रखना...
आज मुझ पे भले यकीं न करो...

फलक पे भीड़ है सितारों की, हम भी खो जायेंगे इन्हीं में कहीं,
और दुआ देंगे जब भी टूटेंगे, अपने पांवों तले फलक रखना...
आज मुझ पे भले यकीं न करो...

हम जो रुसवा हुए तो क्या ग़म है, नाम लब पे न तुम्हारा आया,
तुमसे इतनी ही इल्तिज़ा है मेरी, कोई इल्ज़ाम मत अपने सर रखना...
आज मुझ पे भले यकीं न करो...

राह-ए-वफ़ा के शहीदों में, नाम एक और जुड़ेगा “सौरभ”,
जलना परवाने की तो फितरत है, शम्मा रोशन ता-क़यामत रखना...

आज मुझ पे भले यकीं न करो, दिल में अपने मगर न शक रखना,
डर हो तन्हाइयों में खोने का ग़र, लौट आने का साथ हक रखना...

हौसला

कर न यूं मायूस दिल को, हौसले से काम ले,
कुछ भी नामुमकिन नहीं है, बस तू इतना जान ले...

कौन है जिसको मिली ना राह में नाकामियाँ,
कौन है जिसका बचा है तूफानों में आशियाँ।
कौनसी मंज़िल है ऐसी जो बिना मुश्किल मिली,
और नदी है कौनसी जो बिन गिरे सागर मिली।
कामयाबी हाथ लगती है उसी इंसान के,
वक़्त को सागर बना जो मुश्किलों का जाम ले।
कर न यूं मायूस...

एक कोशिश ना फली तो, ऐ सिकंदर, क्या हुआ,
तेरे आगे ज़िन्दगी का *बहर* है फैला हुआ।
ले निशाने पर कोई तारा तू इस आकाश से,
और लग जा कोशिशों में, फिर उसी विश्वास से।
मंज़िलें मिलती हैं हर उस शख्स को जो बस यूंही,
कर भरोसा खुद पे, उम्मीदों का दामन थाम ले।
कर न यूं मायूस…

राह ग़र मुश्किल लगे तो “सौरभ” ऐसा काम कर,
देख सपने में वो मंज़िल, खुली हों आँखें मगर।
ख्वाब तेरा, देखना तू, रंग ऐसा लायेगा,
क़दमों में आएगी तेज़ी, रास्ता कट जायेगा।
बस बढा चल तू थके बिन अपनी मंज़िल की तरफ,
फासले कुछ भी नहीं हैं, तू जो दिल में ठान ले।
कर न यूं मायूस दिल को, हौसलों से काम ले,

कुछ भी नामुमकिन नहीं है, बस तू इतना जान ले।

*बहर* = Ocean

Monday, 21 July 2008

रे मन तू निराश मत होना

बादल गरजें उमड़-घुमड़ कर, और पवन ले जाए बहा कर
फिर सूरज चमकेगा लेकिन, कहता है अम्बर का कोना
रे मन तू निराश मत होना

चाहे दिन कितना निर्दय हो, कठिन हो रहा बहुत समय हो
रात्रि किन्तु फिर ले आएगी, तारों सा इक सपन सलोना
रे मन तू निराश मत होना

गहन रात्रि हो, अन्धकार हो, दृष्टि न जाती चक्षु-द्वार हो
मगर तिमिर का ह्रदय चीर कर, किरणें बरसाएंगी सोना
रे मन तू निराश मत होना

विषम परिस्थिति, कठिन समय हो, सभी मार्ग जब बाधा-मय हो
मान हार तू बैठ न जाना, और विचलित होकर नहीं रोना
रे मन तू निराश मत होना

यदि तांडव कर रहा प्रलय हो, और दिखाता मृत्यु का भय हो
सत्य चिरंतन यही, जान ले, सृजन प्रलय के बाद है होना
रे मन तू निराश मत होना

इस जीवन का सार यही है, विजयी होता सदा वही है
जिसने सीखा विपदाओं में, “सौरभ” अपना धैर्य न खोना
रे मन तू निराश मत होना

ज़िन्दगी रुक के फिर से चल सी गयी

बाद मुद्दत के यूं हुआ एहसास,
के जैसे ज़िन्दगी बदल सी गयी;

ख्वाहिशों के भरे समंदर में,
उनकी तमन्ना है फिर मचल सी गयी;

जिस तबियत को ला-इलाज कहा था सब ने,
फ़क़त तसव्वुर-ए-सनम से है संभल सी गयी;

उनके वादे पे था ऐतबार हमें,
शम्म-ए-इंतज़ार फिर से जल सी गयी;

उनका चेहरा जो ज़हन में उभरा,
तबियत-ए-दिल ज़रा बहल सी गयी;

दिल के गुलशन में बहारें आयीं,
यादों की बर्फ है पिघल सी गयी;

उनकी खुश्बू जो फ़िज़ा में बिखरी,
लगा बयार-ए-इश्क फिर चमन में चल सी गयी;

कैसे समझायें दिल-ए-नादां को,
जुस्तजू यार की इसमें है अब तो पल सी गयी;

उनके दीदार की ख्वाहिश ही बची है "सौरभ",
वर्ना अब जान बदन से है कुछ निकल सी गयी...