ऐ काश कहीं वो फ़ुर्सत के लम्हे जो दोबारा मिल
जाएँ
सर्दी की सुनहरी धूप में फिर, छत पर खेलें या सो जाएँ
सावन की भीगी
शामें फिर, गलियों में नाव डुबो जाएँ
या गर्मी की रातों में चाँदनी ओढ़ के
ख्वाबों में खो जाएँ
हे समय ठहर, तू किस धुन में दिन-रात दौड़ता जाता
है?
वो शहर, वो गलियाँ फिर दे दे, जिनसे कि पुराना नाता है
क्यों अपने साथ तू
हम सबको यूँ दिशाहीन दौडाता है?
इस अन्धी दौड़ का क्या मक़सद, दिल समझ नहीं ये
पाता है
इससे वो बचपन अच्छा था जब मम्मी मुझे मनाती थी
एक जीत-हार पर हंस
लेते, या आँख डबडबा आती थी
जब नन्हीं हथेली पर बेंतों की मार रुला कर जाती
थी
पर पापा सर पे हाथ जो रख दें, नींद तुरत आ जाती थी
हे समय, कहाँ तू ले
आया, हर बन्दा ओढ़े मुखौटा है
हर चेहरे पर हैं मुस्कानें, पर दिल अन्दर से खोटा
है
मुझको वो बचपन वापस दे, अब और सहन नहीं होता है
ये दर्द है हद से गुज़र
चुका, वरना "सौरभ" नहीं रोता है